Friday, August 31, 2012

एक केतली थी , जो भाप से अपनी सूरज से पहले सुबह उगलती थी..


एक केतली थी ,
जो भाप से अपनी
सूरज से पहले सुबह उगलती थी..
मेहमान आने पे ही वो
अपने कमरे से निकलती थी..
उसकी नक्काशी के
नक्शे अजब से थे...
अफसाने और चर्चे
उसके गजब के थे ..
जापान वाले चाचा उसे इटली से लाए थे..
हम बचपन में छोटे थे ,
पहुंच ना थी वहाँ तक की..
बस एक बार महमानखाने में
उसे ले जा पाए थे..
फिर फैशन चला गया उसका ..
जलवे खो गए..
जापान वाले चाचा के बच्चो ने
उन्हे निकाल दिया घर से..
वो आए थे ..
उन्हे माँ ने आज चाय दी है..
स्टडी टेबल पे उन्होने टूटी केतली को देखा..
मेरी बेटी ने उसका पेन स्टैंड बना लिया है..
चाचा देख के बोले
ये केतली गजब की थी..
रोज़ सबेरे सूरज़ से पहले सुबह उगलती थी...

Thursday, August 30, 2012

ऊपर वाले कमरे का रौशनदान


बचपन में ऊपर वाले कमरे का रौशनदान
प्रोजेक्टर बन जाता था ..
दोहपहरी में सड़्क की हलचल
रीवाइड होती सी दिखती थी

अब खोजता हूं दोबारा उसे
जो दोबारा वो जिंदगी दोहरा दे
जो अब अफसाना सी लगती है .

मां नही है पास जो गोद में लिटा के
बिजली जाने पे अखबार से पंखा करती थी..

अब वो बिजली भी नहीं जाती है ..
तो सोचता हूं की कमब्ख्त जाती क्यों नहीं..

वो जाती थी तो सब अंधेरे में
साथ जमा हो जाते थे...
इस आती बिजली की रोशनी में
सब अलग हो गए है..
इससे अच्छा तो वो गई बिजली का
अपनेपन का अंधेरा था...

बचपन में ऊपर वाले कमरे का रौशनदान
प्रोजेक्टर बन जाता था ..

पुराने बुक मार्क

कछ किताबें , 

जिनमें पुराने बुक मार्क लगा के

फुरसत के दिनों में..

मसरूफियत के इंतज़ार में छोड दी थी..

उन्हे पढ़ने को बेकरार हूं..

पर अफसोस.. 

उन्हें महसूस करने के लिए..

जो सूकूं चाहिए..

वो तो करेंसी नोटों की रद्दी के बीच दबा के..

कोई कबाड़ी खरीद ले गया..

घ‌ड़ी

ये घ‌ड़ी क्यों है रुकी -रूकी..
दौर कब ये जाएगा....
कब समंदर दौड़ के..
कदमों को छूने आएगा ..

और वो सूईयां दौड़्ने लगी.

घ‌ड़ी की कांटे पे बैठ कर
वक्त काट रहा था..
कभी वक्त मुझे काटने लगता..
और कभी वक्त को मैं..
फिर लगा ये तो 
महसूस करने की चीज़ है...
और वो सूईयां दौड़्ने लगी.
और पालना बन के देने लगी 
सूकून की थपकियां..
बो टक टक बन गयी 
मां के सीने की धड़कन..
बचपन की बे लफ्ज़ लोरी..
और सुला दिया मुझे ,
बेघड़ी सूकूं की नींद में ...

सीली किताबे निकालों यारो..


कब तक बिकेगी चाशनी
अफसाने लपेट कर 
कब तक दिखेगें बुलबुले
सच कोने में सिमेट कर..
काठ के संदूक से
सीली किताबे निकालों यारो..
अब वतन की भेंट में ,
कलम बंदूक बना लो यारो.
लहलहाते खेत को
निगलने आंधी आयी है..
अब गुलाबी स्याही को
फेंकने की बारी आई है..

खेल है दुनिया , हिप-हिप हुर्रे ..

खेल है दुनिया ,
हिप-हिप हुर्रे ..
मौज के यारों, 
छानों छर्रे.. 
नकल को अब
तुम गोली मारों
फेकों सारे , 
नकली खर्रे .
जो ,जैसे हो 
जी लो यारों

जीत लो खुद को ,
मत तुम हारो..
खेल है दुनिया ,
हिप-हिप हुर्रे ..
मौज के यारों,
छानों छर्रे.

एक टूटे शीशे का टुकड़ा

बचपन में
एक टूटे शीशे का टुकड़ा 
बन जाता था खिलौना
उसकी चौंध में सब
अंधे हो जाते थे...

अब शीशे के शहर में हूं
जहाँ अपने शीशे के दिल को
चका चौंध से बचाए घूमता हूं
की कहीं ये उसमें बचे
बचपन के शीशे के टुकड़े को
अंधा ना कर दें..