Monday, February 11, 2013

रोज पेंसिल से कॉपी में चील बिलौवआ बनाता था


रोज पेंसिल से कॉपी में
चील बिलौवआ बनाता था...
ना जाने बचपन कैसे..
अपनी मासुमियत बचाता था..
कोई मज़हब बोता था.
तो कोई आरक्षण चुभाता था..
और मैं पेड़ की छांव में
कॉमिकें उगाता था...
दंगे हो रहे होते ..
जब इबादत खानों के..
उस दौर में भी मैं..
पंतगे उड़ाता था..
गोलीयां ठना ठ्न करती
कत्ल भाई चारे का..
और मैं कंचों की गोलीयों से
अपनी दुनिया सजाता था
रोज पेंसिल से कॉपी में
मैं चील बिलौवआ बनाता था...
ना जाने बचपन में कैसे
मैं मासुमियत बचाता था..

घाट अब उतार दो



बाज़ार घाट देश है ..
ज़िन्दगी उधार है..
घाट अब उतार दो ,
गर वतन से प्यार है .
धंधा ही अब वतन की
आन बन गया.
सोने का भाव
शान- बान बन गया ..
भाषा और भूषा है
दो कौड़ी अब बात..
ये भूतिये है , इनसे दे दो
देश को निजात..
ना धर्म की कोई बात है 
ना दीनो ईमान है.
औकात नापने का बस
डॉलर निशान है.
उड़ा तो इस किताब को ,
गोलो से दाग के..
बाज़ार है सारे कोरे
साबुन के झाग से..
बाज़ार घाट देश है ..
ज़िन्दगी उधार है..
घाट अब उतार दो ,
गर वतन से प्यार है .

डस्टबीन में पड़ी कहानी


डस्टबीन में पड़ी कहानी ..
राख नहीं है भईया..
जली रस्सीयों की ऐठन की
खाक नहीं हैं भईया..
वतन के किस्से अफसाने है
जो लिखे नहीं किताबों में..
दबा दिए खादी शालों ने..
नकली आफ़ताबों में..
असली हीरों ढिशुम ढिशुम बिन..
परचम अपना लहराता है..
ईस्टमैंन कलर के बिन भी..
केसरिया से रंग जमाता है..
देश के असली हीरो के
अफसानो की बारी है..
डस्टबीन की सारी राखे..
बन भभूत चित्कारी है...
डस्टबीन में पड़ी कहानी ..
राख नहीं है भईया..
जली रस्सीयों की ऐठन की..
खाक नहीं हैं भईया..

दो इलाईची दानें

हाथ में रखे 
दो इलाईची दानों को रख कर ,
वो सोच रहा था कि 
खाऊं या ना खाऊं ? 
कहीं इनका कोई 
मज़हब तो नहीं ? 
मिठाई होती सिर्फ 
तो खा लेता... 
देने वाली बुढिया ने कहा 
बेटा आशिर्वाद समझ के खा ले , 
ये सोच लेना इंसान ने छुआ है
नीली छतरी के
बटवारे करने वालों ने नहीं..
क्योकि मिठास का
कोई मज़हब नही होता..

खो गई सिक्कों की खनक

इन सिक्कों की खनक 
जाने कहाँ खो गई.. 
बचपन की पेन्सिल .. 
बेनोक हो गई 
पगड़डी गुबरैलो वाली..
सीमेंट से पट गई .. 
मदारी के गीत छोड़.. 
पोयम रट गई... 
कॉमिके तितली सी.. 
रद्दी में बिक गई.. 
मुस्काने भोली सी ..
शहरों में पक गई..
शरारतें फुर्तीली ..
बोझो से थक गई ..
इन सिक्कों की खनक
जाने कहाँ खो गई..
बचपन की पेन्सिल ..
बेनोक हो गई..