Saturday, May 7, 2016

बोतलें

काट के जंगल बनाया है शहर हमने
अब बोतलों में यहाँ जंगल को तरसते हैं
सुखा के पानी हम बने आका से फिरते है
सब बोतलों में चुल्लू बना के डूबते है रोज़
- आकाश पाण्डेय
8 मई 2016

Sunday, May 1, 2016

शाम

बेलफ्ज़ हो गए हम उस शाम को ,
अब तरसेगे हर शाम उस नाम को ।
वो रास्ते तो बेफ़िक्र से लगते थे हमे
वो अँधेरे से लगते है मुझ गुमनाम को।