Tuesday, July 3, 2012

कुछ तो कहें


कब तक सहें,कुछ तो कहें . 
कलम से या , धार से लफ्ज़ ,
धुन या झंकार से
ये देश धड़कन मांगता ..
क्यों नहीं तू ठानता ..
मत चुप रहो, कुछ तो कहो
कलम से या , धार से लफ्ज़ ,
धुन या झंकार से
शबद, अज़ान , गीता के सार से 
क्रोध , आंसू ,प्यार से.. 
अब मत सहो , कुछ तो कहो....

(आकाश पाण्डेय , मुंबई , 3 जून ,2012)

माँ..

वो पन्ने खो गए है.. 
जिनपे कुछ लिखना बाकी था....

सोचता था आज नहीं कल लिख लूंगा..
ये तो अपनी डायरी के ही तो है.. 

तारीखे निकलती चली गई.. 
और वो नीचे चले गए.

अब नहीं है तो बहुत याद आती है..
सोचता हूं काश तभी लिख दिया होता.

पर अब तो वो पन्ने खो गए है.. 
जिनपे कुछ लिखना बाकी था.

वर्तमान में रहूं या यादों में मैं खाऊं गोते


वर्तमान में रहूं
या 
यादों में मैं खाऊं गोते
आने वाले कल को बुन लू
मन ही मन में बाते गढ़ लूं
या 
रहूं वर्तमान में ?

बचपन तो था रंग रगींला
चुरन ,कॉमिक पतंग  और कंचे ,
गली , मोह्ल्ला ,आसमान वो नीला 

कल को क्या बन जाऊंगा 
आसमान छू जाऊंगा 
मुठ्ठी में होगी सब दुनिया 

फिर भी ज्ञानी कहते है 
जिओ आज में , रहो आज में 

प्रश्न यहीं है मेरे  मन में...

वर्तमान में रहूं
या 
कल और कल में कल-कल बह लूं ?

यहाँ वो टीन की छ्त नहीं है. - आकाश पांडेय


बारिश की बूंदे तो है...
पर यहाँ  वो टीन की छ्त  नहीं है..
जिसपे गिर के ये बूंदे
बचपन  में सरगम बन जाया करती थीं..
ये गिरती हैं सीमेंट की सतह पे अब..
जो किसी को बहने नहीं देना चाहती हैं..
सोख लेती हैं सब कुछ  ...
बारिश की बूंदें भी..
और मेहनत का पसीना भी..

बारिश  की बूंदें तो है ..
लेकिन अब वो खुली नालियां नहीं हैं..
जिसमें ताज़ा अखबार  की..
मंहगाई, भूख और बेरोज़गारी को..
मुस्कुरा के कागज़ की कश्ती में तहा के..
बहा दिया करते थे..
अब तो वो सारी नालिया बंद  है..
अब  ना हम  कश्तीयाँ बहा सकते हैं और ना आंसू

बारिश की बूंदे तो है...
पर वो नीम का पेड़ नहीं है
जिसके नीचे दादी की काली छतरी ले
घंटो बेसुध फुहारो का मज़ा लेते थे..
सुना है वो नीम अब किसी ने पेटेंट करा लिया है...

बारिश की बूंदे तो है...
पर यहाँ  वो टीन की छ्त  नहीं है..
जिसपे गिर के ये बूंदे
बचपन  में सरगम बन जाया करती थीं..