बचपन में ऊपर वाले कमरे का रौशनदान
प्रोजेक्टर बन जाता था ..
दोहपहरी में सड़्क की हलचल
रीवाइड होती सी दिखती थी
अब खोजता हूं दोबारा उसे
जो दोबारा वो जिंदगी दोहरा दे
जो अब अफसाना सी लगती है .
मां नही है पास जो गोद में लिटा के
बिजली जाने पे अखबार से पंखा करती थी..
अब वो बिजली भी नहीं जाती है ..
तो सोचता हूं की कमब्ख्त जाती क्यों नहीं..
वो जाती थी तो सब अंधेरे में
साथ जमा हो जाते थे...
इस आती बिजली की रोशनी में
सब अलग हो गए है..
इससे अच्छा तो वो गई बिजली का
अपनेपन का अंधेरा था...
बचपन में ऊपर वाले कमरे का रौशनदान
प्रोजेक्टर बन जाता था ..
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