वो आँगन है आज भी मुझको याद
तुलसी,घरौंदा... नन्हा सा पौधा
वो छोटी सी साँकल..और कोने का कलसा
हर सुबह थी होली के रंगों सा जलसा
तकती थी दादी राह जो मेरी
कि आयेगा छोटू तो जायेगें मन्दिर
और मंडी में मिलती.. चूरन की गोली
उससे भी मीठी चूरन वाले की बोली
वो डमरू की डुग डुग कहाँ खो गयी है
ना दादी,ना तुलसी .. ना चूरन की गोली
बचपन न जाने ,कहाँ गुम हुआ है...
वो आँगन,घरौंदा..इक पीतल का कलसा
यादों में हैं बस वो नन्हा सा पौधा...
Hi Aakash ! Went through your blog.Feels nice to know you are a painter/actor/director/designer/writer too !Regards
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